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बीए सेमेस्टर-3 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्र

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2676
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-3 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्र

प्रश्न- भारतीय कला में चित्रित बुद्ध का रूप एवं बौद्ध मत के विषय में अपने विचार दीजिए।

अथवा
भारतीय कला में बौद्ध के स्वरूप की चर्चा करिये।

उत्तर -

भारतीय कला में चित्रित बुद्ध का रूप, बौद्ध मत

भारत में अति प्राचीन काल से धर्म की परिभाषा एक अत्यन्त उच्च दार्शनिक विचारधारा रही है। सभी धर्मों का आदर करना, जीवन के उच्च आदर्शों को ग्रहण करना व मोक्ष प्राप्ति के लिए परमात्मा में लीन हो जाना, यहाँ की विशिष्ट परम्परायें रही हैं। धर्म और दर्शन भारतीय कला का मूलपरक स्रोत रहा है। वहीं कलाकार एक योगी की भाँति सांसारिक स्वार्थों से ऊपर उठकर, अपनी अनुभूतियों को साकार रूप प्रदान कर सकता है। बौद्ध भिक्षु गृहस्थ जीवन से मुक्त, अध्यात्म में लीन प्रकृति की शरण में निवास करते थे। उनमें से कुछ प्रतिभा सम्पन्न भिक्षु कलाकार भी थे जो आश्रम को तूलिका और छैनी के कौशल से सजाकर आनन्द लेते थे। सम्भवतः धार्मिक भावावेश की उथल-पुथल ने उन भिक्षु कलाकारों को निर्जन पहाड़ियों और घाटियों में अजन्ता के भव्य कला - मंडपों को शाश्वत रूप प्रदान करने के लिए बाध्य किया होगा।

गुफा नं. 1 के प्राप्त चित्रों में 'मारविजय' नामक एक अत्यन्त सुन्दर कृति है। चित्र में भगवान बुद्ध को मध्य में संयोजित किया गया है। वे ध्यान मुद्रा की स्थिति में हैं। चारों ओर उन पर मार की सेनायें आक्रमण कर रही हैं। कुछ डरावनी आकृतियाँ भी हैं। उनकी साधना में विघ्न डालने के लिए मार की कन्यायें नृत्य विभोर होकर मोहक शरीर भंगिमाओं के साथ भगवान बुद्ध को साधना से पथ भ्रष्ट करना चाहती हैं। पर इनका कोई भी प्रभाव उन पर नहीं होता है। वे अलौकिक शान्त मुद्रा में अंकित किये गये हैं। "मार विजय" चित्रण में ही बुद्ध की भूमि स्पर्श मुद्रा देखने को मिलती है। इसी गुफा में नीलकमल धारण किये हुए, मानव कल्याण के लिए चिन्तित पद्मपाणि बोधिसत्व (अवलोकितेश्वर) का चित्र भी बड़ा ही विलक्षण है।

गुफा नं. 16 में माया देवी (भगवान बुद्ध की माँ) का अद्वितीय चित्र है। पलंग पर लेटी माया देवी अपने गर्भ में प्रवेश करते हुए हाथी का स्वप्न देखती हैं। स्वर्ग लोक से भगवान बुद्ध के हाथी के रूप अवतरित होने की विलक्षण कल्पना तूलिका के माध्यम से चित्रकार ने बड़ी ही कौशल के साथ परिपूर्ण की है। इसी प्रकार सुजाता द्वारा सखियों के साथ भगवान बुद्ध को बुद्धत्व प्राप्त होने के बाद, खीर समर्पित करने का दृश्य - चित्र अनोखा है। इस गुफा में अनेक मार्मिक चित्रण किये गये हैं। एक अन्य चित्र में शिशु भगवान बुद्ध के जन्म के समय ब्रह्मा को छत्र की छाया करते हुए अंकित किया गया है। जन्म के बाद भगवान बुद्ध ने सभी दिशाओं की ओर सात- 2 पग रखे जो कमल (प्रतीक) रूप में अंकित किये गये। विभिन्न दिशाओं में यह कमल भगवान बुद्ध की कीर्ति और ऐश्वर्य का द्योतक हैं। इसी गुफा में भगवान बुद्ध के गृह त्याग का अद्वितीय चित्र है। गृह त्याग के समय यशोधरा और पुत्र राहुल का ममत्व उन्हें विह्वाल कर देता है। अन्तिम बार उन्हें देखने की लालसा से वे यशोधरा के कक्ष में प्रवेश करते हैं। माँ यशोधरा के बाहुपोश में सोते हुए राहुल को देखकर, वे विचलित हो उठते हैं। दूसरे ही क्षण उनके मुख पर शान्त और त्याग के भाव प्रदर्शित होने लगते हैं। इस चित्र में उनके अन्तर्द्वन्द्व के भाव अवलोकनीय हैं।

गुफा नं. 17 के एक चित्र में भगवान बुद्ध को (ज्ञानार्जनोपरान्त) कपिलवस्तु में अपनी ही पत्नी यशोधरा से भिक्षा माँगते हुए दर्शाया गया है। स्वामी द्वारा अर्चना करते हुए देखकर यशोधरा अपने एक मात्र पुत्र राहुल को समर्पित कर देती हैं। यशोधरा के मुखमण्डल पर शान्ति और आत्मसंतोष की छटा विद्यमान है जो भारतीय नारी के त्यागमयी रूप को प्रकट करती है।

गुफा नं. 16 में " मरणोन्मुख राजकुमारी" का एक अत्यन्त भावुक और विलक्षण चित्र है। वह दुःख से पीड़ित सिर झुकाये हुए, अधखुले नेत्रों और शिथिल अंगों वाली विषादपूर्ण मुद्रा में चित्रित है। एक दूसरी स्त्री उसे सहारा दे रही है। पास में खड़ी एक दासी उसे पंखा झल रही है। नीचे अन्य लोग चिन्तित मुद्रा में बैठे हैं, एक स्त्री अपने को यह दृश्य देखने में असमर्थ पाती है और अपने हाथ से अपना मुख ढककर रो पड़ती है।

गुफा नं. 6 में कमल पर आसीन भगवान बुद्ध धर्मचक्र मुद्रा में अंकित किये गये हैं। इसी गुफा के दूसरे खण्ड में भगवान बुद्ध के चरणों में कमल पुष्प अर्पित करते हुए एक उपासक का चित्र है। उपासक के मुख पर असीम श्रद्धा के भाव और शान्ति के भाव देखते ही बनते हैं।

563 ई. पूर्व शैशुनाक कला की कोई खास परम्परा तो विकसित नहीं हुई, पर भावी कला की उत्प्रेरक एक महान् तैजस शक्ति भगवान बुद्ध के रूप में अवतरित हुई, जिसने न केवल भारत में अपितु उसकी सीमा के परे दूर-दूर तक के देशों पर अपना व्यापक, स्थायी प्रभाव डाला। यह धार्मिक अशान्ति का युग था। शताब्दियों तक जैन, बौद्ध और ब्राह्मण धर्म में परस्पर प्रतिद्वन्द्विता चलती रही। ब्राह्मणों में यज्ञ, कर्मकाण्ड, बलि प्रथा और जात-पात का यार्थक्य पराकाष्ठा को पहुँच गया था। यज्ञों में बहुत अपव्यय होता था और पशुओं की बड़ी निर्दयता से बलि दी जाती थी। जैन धर्म में भी तप, उपवास एवं अहिंसा के नियम इतने जटिल और दुस्साध्य थे कि प्रत्येक के बल-बूते का काम न था कि उन्हें निभा सके। यद्यपि जैन धर्म के प्रसार के साथ-साथ चित्रकला का भी प्रचलन बढ़ा। पर यह जनता को अधिक ग्राह्य न हो सका। प्राय: जैन साहित्य जिसमें इस सम्प्रदाय की एक विशिष्ट शाखा - श्वेताम्बर के विषय की विस्तृत चर्चा है, तालपत्रों पर उल्लिखित मिलता है। (विषय को अधिक ग्राह्य और सुपाठ्य बनाने के लिए उदाहरण रूप में प्रचुर चित्रों का उपयोग किया जाता था, लेकिन ये चित्र जैन धर्म के अब भरे जटिल नियम, उपनियमों में जकड़े महज, काल्पनिक और रूढ़ बनकर रह जाते हैं। इनमें कोई स्फुरणशील गति, नयायन या ताजगी नहीं थी। इन्हें स्याही से बनाया जाता था और भद्दी बेजान मोटी रेखाओं में कोई आकर्षण न होता था।) जैन कला और साहित्य एक अवसादमयी जड़ता में सिमटता जा रहा था। इन तीनों में बौद्ध धर्म ने मध्यम मार्ग अपनाया,जिसमें निम्न सम्मिलित थे -

(1) सम्यक् दृष्टि
(2) सम्यक् संकल्प
(3) सम्यक् वचन
(4) सम्यक् कर्मान्त
(5) सम्यक् आजीव
(6) सम्यक् व्यायाम
(7) सम्यक् स्मृति
(8) सम्यक् समाधि |

इत्यादि अष्टांगिक मार्ग थे और अहिंसा, सत्यभाषण, मादक द्रव्यों के परित्याग, ब्रह्मचर्य व्रत के पालन आदि पर जोर दिया गया था। उसमें जाति-पाँति का भेद न था और स्त्री एवं शूद्र तक सत्कर्म द्वारा मोक्ष पद प्राप्त कर सकते थे।

धीरे- धीरे बौद्ध धर्म अत्यधिक लोकप्रिय हुआ और तत्कालीन कला एवं शिल्प पर उसकी गहरी छाप पड़ी। बुद्ध के समय जो शक्ति सोलह गणराज्यों में विभक्त हो, अनेक मुखी हो गई थी, वह क्रमश: संगठित होती गई। सम्राट् अशोक के राज्यकाल तक आते-आते बौद्ध धर्म का सार्वभौमिक प्रभाव प्रतिफलित हुआ और 9वीं, 10वीं शताब्दी तक वह उत्तरोत्तर बढ़ता गया। यह प्रभाव एकांगी न था, वरन् उसमें कितने ही बाहरी प्रभाव आत्मसात् होकर पुष्ट हुए थे। लोकोत्तरचेता सम्राट अशोक की कलाभिरुचियाँ अनेक स्तूपों, स्तम्भों, गुहाओं और राजप्रासादों के निर्माण में केन्द्रित हो गईं। अशोक स्तम्भ जो साँची, सारनाथ, दिल्ली, प्रयाग, मुजफ्फरपुर, बुद्ध की जन्मभूमि लुम्बिनी, लौरिया, नन्दनगढ़ आदि स्थानों में पाए गए हैं। एक ही किस्म के चुनार के लाल पत्थर को काटकर निर्मित हुए हैं। इनकी ऊँचाई तीस से चालीस फुट तक, भार पचास टन तक और ऊपर से बिना किसी आधार के ये टिके हुए हैं। इसके दो भाग हैं मुख्य दण्डाकार भाग जो गोल और नीचे से ऊपर तक चढ़ाव उतारदार हैं तथा ऊपर का स्तम्भ शीर्ष। स्तम्भों की गोलाई, चिकनाहट, निर्माण प्रक्रिया और अद्भुत ओप में मौर्य काल की कला का चरम उत्कर्ष दिखाई पड़ता है। सारनाथ में सिंह शीर्ष स्तम्भ इतना विलक्षण है कि उसमें सत्, रज, तम की भव्य भावना अंतर्निहित है। ज्ञान प्राप्त कर लेने के पश्चात् गया से लौटकर भगवान तथागत (बुद्ध) ने सारनाथ में ही भिक्षुसंघ के साथ वर्षावास किया था।

सारनाथ में ध्वंसावशेषों से ज्ञात होता है कि यहाँ बहुत से मन्दिर, मठ चैत्य, विहार और शिक्षणालयों की स्थापना की गई थी। ग्यारहवीं-बारहवीं शती के मुस्लिम आक्रमणों ने इन सुन्दर कला स्मारकों को ध्वस्त कर दिया फिर भी अवशिष्ट मूर्तियाँ और भवन निर्माण विधि सें तत्कालीन स्थापत्य कला के आदर्शों पर प्रकाश पड़ता है। कुछ स्तम्भों के शिखर पर बारीक चित्रांकन हुआ है। अशोक ने बौद्ध भिक्षुओं के लिए चैत्य, विहार और कुछ कंदराएँ भी पहाड़ काटकर बनवाई थीं। चीनी यात्री फाह्यान ने लिखा है कि ये महल मनुष्यों द्वारा निर्मित नहीं बल्कि देवताओं और दैत्यों द्वारा बनवाए गए हैं। बौद्ध धर्म में अभी तक मूर्ति पूजा का प्रचलन न था पर भागवत् धर्म के प्रभाव से ये लोग भी भगवान बुद्ध की प्रतिमाएँ गढ़ने लगे। उपास्य के पूर्णत्व को साकार करने के लिए मूर्ति शिल्पी को गहरी भूमिका में उतरना पड़ता है। भाव भंगिमा, अध्यात्मभाव और सरल सुस्पष्ट देवतत्व को दर्शाने के लिए कलात्मक कल्पना अधिक प्रौढ़ और सूक्ष्म हो गई थी।

भारतीय बौद्धकला व उसका एशियाई प्रभाव - बौद्ध धर्म का उदय 6वीं शताब्दी ई. पू. में हुआ, किन्तु बौद्धकला के उदाहरण सम्राट् अशोक के पहले के प्राप्त नहीं हुये। अशोक ने सर्वप्रथम कला को पत्थर का माध्यम प्रदान किया जो आज भी अपूर्व निधि के रूप में अवलोकनीय है। बुद्ध के आदेश मूर्ति व चित्र बनाकर उनमें आनन्द लेने व उनकी आराधना के लिए उपयुक्त करने के विरुद्ध थे। उन्होंने स्तूप निर्माण व पूजा के महत्व पर बल दिया। उनके निर्माण के बाद अशोक ने अनेक बहुमूल्य व उत्कृष्ट स्मारक स्थापित किये, जो कला की दृष्टि से अद्वितीय हैं। बुद्ध के अवशेष जो उनके निर्वाण के तत्काल बाद 8 स्तूपों में रखे गये थे, उन्हें अशोक ने निकलवाकर देश के विभिन्न प्रदेशों में 84000 स्तूपों में वितरित करवा दिया। सर्वप्रथम स्तूप मूलतः मिट्टी के बनाये जाते थे, किन्तु अशोक के समय में उन मिट्टी के स्तूपों पर पत्थर की शिलाओं का आवरण लगाया जाने लगा। धीरे-धीरे उन शिलाओं पर कलात्मक आकृतियाँ उत्कीर्ण की जाने लगीं। तत्पश्चात् स्तूपों के चारों ओर प्रदक्षिण पथ के बाहर पत्थर की वेदिका का निर्माण हुआ। उन वेदिका पर बेड़ी पट्टी पर कलात्मक आकृतियाँ उत्तीर्ण की गईं। साथ ही साथ श्रेष्ठ शिल्पियों द्वारा भगवान बुद्ध के जीवन से सम्बन्धित महत्वपूर्ण घटनाओं व जातक कथाओं को भी उरेहा गया, जिनका उद्देश्य था कि भक्त एवं दर्शकगण प्रदक्षिण की क्रिया के साथ उन शिल्प चित्रों का अवलोकन कर आध्यात्मिक दिशा की ओर उन्मुख हों और अपने जीवन में बुद्ध द्वारा दर्शाये गये मार्ग का यथासम्भव अनुसरण करें। प्रारम्भिक काल मंय ऐसे चित्रण में बुद्ध की प्रतिमा कहीं भी दर्शित नहीं की गई। उनकी उपस्थिति केवल प्रतीकों के द्वारा ही दर्शायी गई। जैसे- पचिन्ह, बोधिवृक्ष, स्तूप अथवा उनके जीवन की विशेष घटनाओं से सम्बन्धित पशुओं द्वारा - "हाथी" उनके जन्म के प्रतीक के रूप में "अश्व" महाभिनिष्क्रमण तथा "हिरण" प्रथम आदेश के प्रतीक रूप में प्रयुक्त किये गये हैं। इस प्रकार दूसरी व पहली शताब्दी के अन्तर्गत भरहुत, साँची व बोधगया की बौद्ध कला उत्कीर्ण हुई। इसी काल में पश्चिमी दक्खिन में विदिशा (Bedsa), भाजा (Bhaja), कार्ले (Karle) आदि गुफा मन्दिरों का निर्माण हुआ और पूर्व में आधुनिक उड़ीसा प्रदेश में खंडागिरी (Khandagiri) व उदयगिरि (Udayagiri) की गुफायें बनीं। पहली शताब्दी ई. पू. में अजन्ता के गुफा मन्दिर का निर्माण हुआ।

दूसरी शताब्दी ई. पू. में दक्खिन में कृष्णा नदी की घाटी में अमरावती (Amaravati), गोली (Goli), व नागार्जुन कोण्डा (Nagarjuna Konda) में स्तूपों के निर्माण का कार्य आरम्भ हुआ और तीसरी शताब्दी ई. तक चला। सुदुर उत्तर-पश्चिमी में पहली शताब्दी ई. पू. में रोमन बौद्ध गांधार की नींव पड़ी।

ई. की पहली शताब्दी में सम्राट कनिष्क के राज्य-काल में बौद्धों की चौथी सभा में इस सम्प्रदाय का दो बड़े, सम्प्रदायों 'हीनयान' (Hinayana) और महायान (Mahayana) में विभाजन हुआ। 'हीनयान' निर्माण का छोटा मार्ग है और 'महायान' बड़ा मार्ग है। इनके दार्शनिक और नैतिक दृष्टिकोणों में भी बहुत अन्तर है। हीनयान अमूर्त उपासना के पक्षधर थे, किन्तु महायान सम्प्रदाय की प्रमुख विशिष्टताओं के कारण सामान्य जनसमुदाय ने उनके सिद्धान्तों में रुचि ली। इस नये सम्प्रदाय (महायान) के प्रभाव से बौद्धधर्म में प्रतिमा उपासना का रूप बौद्ध कला ने ले लिया तथा बौद्ध धर्म में प्रतिमा का प्रचुर अविर्भाव हुआ। गान्धार कला के केन्द्रों में बुद्ध की असंख्य प्रतिमाओं का सृजन हुआ। मथुरा में भारतीय शैली की बुद्ध प्रतिमायें मुख्य रूप से बनाई गईं और बुद्ध प्रतिमा निर्माण का एक प्रमुख केन्द्र बन गया, जहाँ से देश के विभिन्न भागों में इन प्रतिमाओं की बड़ी संख्या में आपूर्ति की गई। महायान के प्रभाव के अन्तर्गत कृष्ण की घाटी स्तूपों में बुद्ध की प्रतिमाओं का समावेश हुआ और पश्चिमी दक्खिन गुफाओं में जैसे नासिक कन्हेरी और अजन्ता के गुफा विहारों में बुद्ध की प्रतिमायें स्थापित की गईं।

भारतवर्ष में चित्रकला अति प्राचीनकाल से लोकप्रिय रही है। प्रस्तर शिल्प को अधिक आकर्षक बनाने के उद्देश्य से उस पर रंग चढ़ाया जाने लगा। तत्पश्चात् प्रस्तर-शिल्प को अधिक आकर्षक, अधिक सरल तथा साध्य प्रक्रिया समझा गया और भित्तियों पर चित्रण किया जाने लगा। पश्चिमी दक्खिन की गुफाओं में भित्ति चित्रण, बौद्ध धर्म का एक सशक्त माध्यम बन गया था। नासिक (Nasik), कन्हेरी (Kanheri) और अजन्ता (Ajanta) की गुफाओं में बौद्ध धर्म को आदर का स्थान प्राप्त था। दुर्भाग्यवश अन्य स्थानों की चित्रकला समय के प्रहार से विनष्ट हो चुकी है, किन्तु अजन्ता की चट्टानों की विशेषता के कारण वहाँ की चित्रकारी इतनी शताब्दियाँ व्यतीत हो जाने पर भी सुरक्षित बनी हुई है। यहाँ जातक कथाओं के साथ-साथ बुद्ध के चित्रों की बाहुल्यता दिखाई पड़ती है। इस प्रकार बौद्ध कला दो प्रमुख माध्यमों- प्रस्तरशिल्प एवं भित्ति चित्रों द्वारा देश के विभिन्न स्थानों पर कुसमित हुई।

भारत का विदेशों से व्यापारिक सम्बन्ध था। पश्चिम में रोम साम्राज्य तथा फारस और पूर्व में चीन से आयात-निर्यात होता था। काबुल व सिन्धु नदी की घाटियों का प्रदेश मुख्यतः गान्धार देश था। गान्धार कला के प्रमुख केन्द्र तक्षशिला, उद्दीयान, कपिसी, वमियान व बेनिट्रया थे। तक्षशिला ग्रीकोपार्थियन (Greco-parthian) समय से ही कलास्थल बन गया था।

कुषाण सम्राट् बौद्ध धर्म के प्रति सहिष्णु थे। सम्राट् कनिष्क ने बौद्ध धर्म को अत्यधिक प्रोत्साहन दिया। उसी के परिणामस्वरूप गान्धार प्रदेश के विभिन्न स्थलों में बौद्ध कला का इतना अधिक प्रचार हुआ। सम्राट अशोक के समय में बौद्ध धर्म अपने ऐश्वर्य की पराकाष्ठा पर पहुँचा। उसके समय में पाटिलपुत्र में तीसरी बौद्ध संगीती हुई। उसने भारत के दूर प्रदेशों में प्रचारक भिक्षु भेजे। यवन देशों में भी दूत गये। ऐसे प्रचार के फलस्वरूप बौद्ध मत ईरान, ईराक, मिश्र आदि देशों तक पहुँचा और उसका प्रसार सम्पूर्ण एशिया में हुआ। चित्रकला को धर्म प्रचार का उत्तम साधन स्वीकार किया गया। जब बौद्ध प्रचारक भारत से बाहर दूसरे देशों में गये तो अपने साथ रोल चित्रपटों (Scrolls) को भी लेते गये। उन चित्रपटों पर बौद्ध दर्शन, भगवान बुद्ध की जीवन की घटनायें और शिक्षायें प्रदर्शित थीं, जो जनसाधारण को बौद्ध धर्म के प्रति आकर्षित करने में प्रभावकारी सिद्ध हुईं। उन चित्रपदों के द्वारा ही चीन, लंका, जावा, स्याम, वर्मा, नेपाल, तिब्बत, अफगानिस्तान, जापान, कोरिया आदि देशों में बौद्ध धर्म एवं कला का प्रवेश हुआ।

नालन्दा, तक्षशिला, उदन्तपुरी आदि बौद्ध धर्म के प्रमुख केन्द्र थे। नालन्दा शिल्पकला के लिए प्रसिद्ध था। तिब्बत के स्तूपों, विहारों, मठों व मन्दिरों के स्थापत्य व शिल्प पर बौद्ध प्रभाव स्पष्ट दर्शनीय है। इसी प्रकार सिक्किम में भी बौद्ध धर्म राजमत बना। वहाँ बौद्ध धर्म एवं बौद्ध कला के प्रसार का श्रेय तिब्बत के लामाओं को प्राप्त है। कुछ ही वर्षों में बौद्ध धर्म के प्रचार के साथ-साथ बहुसंख्या में बौद्ध विहारों और मठों का निर्माण हुआ। वे पूजा के प्रमुख स्थल माने जाते थे। यद्यपि इन स्थलों पर हिन्दू देवी-देवताओं (विष्णु, शिव, गणेश) की मूर्तियाँ स्थापित की गईं, किन्तु प्रमुखता बौद्ध धर्म एवं बौद्ध देवी-देवताओं की रही है।

इतिहासकार तारानाथ के अनुसार, “प्रत्येक देश अन्य देशों की भाषा से अनभिज्ञ था, अतः बौद्ध कला को ही बौद्ध धर्म के प्रसार का श्रेय प्राप्त है। "

लारेन्स विनियान ने लिखा है कि, "एशिया की कला का इतिहास बौद्ध कला के इतिहास से उसी प्रकार सम्बद्ध है जिस प्रकार योरोप की कला का इतिहास क्रिश्चियन धर्म में समाहित है। " चीनी चित्रकला पर बौद्ध कला के सुप्रभावों का उल्लेख करते हुए डॉ. चाउं सिआंग कुआंग ने चीनी बौद्ध धर्म का इतिहास नामक पुस्तक की भूमिका में लिखा है कि "बौद्ध धर्म के चीन में आने के बाद हमारी चित्रकला को नूतन प्रोत्साहन मिला। चित्रकारों को बौद्ध धर्म ने नये भाव दिये। हमारे मन्दिरों के भित्ति चित्रों तथा बौद्ध चित्रों पर अजन्ता के भित्ति चित्रों का प्रभाव हो सकता है

5वीं शताब्दी के प्रथम चरण की बौद्ध कला के समर्पित चीनी चित्रकार 'कू - काई - चीह' (Ku-Kai-Chih) के विषय में लारेन्स ने लिखा है कि "उसके चित्रों में जीवन गीत, लय और कोमल रंग योजना इतनी सुन्दर बन पड़ी है कि अजन्ता के चित्रकार वहाँ तक नहीं पहुँच सके।" वांग वी (Wang Wei) और 'वू टाऊ - जू' (Wo-Tao Tzv) द्वारा चीन में टुंग हंग (Tun-Hung) और कान्सू - प्रान्त (Kansu Province) के गुफा मन्दिरों में करुणा व आत्म त्याग से मुक्त प्रेम एवं अपने पुण्यों को मानव जाति के कल्याण के हेतु समर्पित बोधिसत्व के चित्र अजन्ता की चित्रकला के उच्च आदर्शों से भिन्न नहीं हैं। 7वीं व 8वीं शताब्दी के मध्य बौद्ध धर्म चीन व कोरिया से होता हुआ जापान पहुँचा। जापान के होरियोजी (Horyoji) के गुफा मन्दिरों में बोधिसत्व के भित्ति चित्र, बुद्ध की ताम्र और कांस्य की अवलोकितेश्वर की प्रतिमाओं पर अजन्ता एवं मथुरा परम्परा का प्रभाव दृष्टिगत होता है। होरियोजी गुफा के प्राप्त चित्रों में चित्र नं. 5 व बोधिसत्व कानआन अवलोकितेश्वर (Bodisattva Kwannon Avalokitesvara) का कर्णकुण्डल, हार, बाजूबन्द, कड़े और मेखला पहने हुए यह दुर्लभ चित्र अजन्ता के गुफा नं. 1 में प्राप्त (संसार के मानवजाति के कल्याण के लिए चिन्तित मुद्रा में) अवलोकितेश्वर के चित्र से प्रभावित जान पड़ता है। भगवान बुद्ध और दिव्य - आत्माओं की मण्डली बादलों के मध्य देवी-देवताओं व अप्सराओं के चित्रों में बौद्ध दर्शन एवं अध्यात्म की आदर्शमय व्याख्या हुई है। उन चित्रों के विषय मुद्रायें, वेशभूषा व भावाव्यक्ति अजन्ता की परम्परा को दोहराते दिखाई पड़ते हैं। इस नवीनता ने चीन व जापान की कला में एक विशेष आकर्षण पैदा कर दिया है। अजन्ता के कलाकारों का आध्यात्मिक एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण था। तभी वे प्रकृति के अणु - अणु में समाहित दिव्य सौन्दर्य को आत्मसात कर, कला को नूतन, स्वरूप प्रदान कर सकने में सफल हो सके। उन्हीं आदर्शों को चीनी और जापानी चित्रकारों द्वारा परम श्रद्धा भाव के साथ वरण कर, पशु-पक्षियों, वृक्ष लताओं, नदी-नालों, झुरमुटों व पर्वत मालाओं के अंकन में आध्यात्मिक सत्य दर्शाने की चेष्टा की है। तभी उनकी कला में सर्वतोमुखी विकास होता रहा।

भारत और सुदूरपूर्व देशों के बौद्ध धर्म में बोधिसत्व एक महत्वपूर्ण धारणा है। इस धारणा के अनुसार बोधिसत्व अपने पुण्यों द्वारा अपने साथियों को मुक्ति पाने में सहायता कर सकता था। इस विश्वास ने बौद्ध धर्म के अनुयायियों एवं जनमानस में बोधिसत्व के प्रति एक विशेष आकर्षण उत्पन्न कर दिया था। अजन्ता के वैभवशाली चित्रों में बोधिसत्व का उक्त चित्रण है तथा बुद्ध को पारम्परिक शान्त, अध्यात्मिक संसार से पूर्णतया तटस्थ प्रस्तुति करना, राजकीय ऐश्वर्य के साधन व वैभव की तड़क-भड़क से बढ़कर नारियों का आकर्षक मुद्राओं में, कहीं अल्प वस्त्र तो कहीं पारदर्शी परिधानों में अंकन, अजन्ता के कलाकारों की कला प्रतिभा का दिग्दर्शन कराते हैं। विषय वस्तु के सम्बन्ध में उन चित्रकारों ने बुद्ध के जीवन की प्रमुख घटनाओं अथवा जातक कथाओं का आश्रय लिया है और उनका ऐसा चित्रण प्रस्तुत किया है जो कलात्मक सौन्दर्य के साथ-साथ बौद्ध धर्म के प्रमुख सिद्धांतों जैसे आत्मत्याग, जीवमात्र के प्रति करुणा तथा मानव का जीवमात्र से बंधुत्व का नाता दर्शकों के मानसपटल पर प्रभाव डालें।

(बौद्ध धर्म में जन समुदाय के क्लेशों के प्रति संवेदना प्रमुख है। इच्छायें क्लेश की जन्मदात्री हैं और पुनर्जन्म के चक्र की स्रोत हैं, किन्तु मानव क्लेशों का विवरण अजन्ता की कला में चित्रण का विषय-वस्तु नहीं बन सका। शारीरिक पीड़ा से व्यथित, अर्थाभाव से पीड़ित व्यक्ति, भिखारी व कुष्ट रोगी का प्रदर्शन, अजन्ता में कहीं देखने को नहीं मिलता। अन्य शब्दों में, अजन्ता चित्रण में एक मात्र शृंगार व शान्त रस ही प्रधान हैं। करुण, हास्य तथा अद्भुत रस का प्रदर्शन यदा-कदा ही हुआ है। वीर, रौद्र, भयानक व वीभत्स रसों का प्रदर्शन यत्नपूर्वक बचाया गया है। इन रसों की उपेक्षा सम्भवतः यही की होगी। अजन्ता जैसे धार्मिक स्थलों के निर्माण व अलंकरण में आर्थिक योगदान उन उच्चवर्गीय धनाढ्य लोगों को रहा होगा जो बौद्ध धर्म के आदर्शों से प्रभावित रहे होंगे। चित्रण की विस्तृत योजना भी उन्हीं की रुचि के अनुकूल रही होगी तथा कलाकारों को भी उसी परिधि में रहकर काम करना पड़ा होगा। यदि कलाकार विषय-वस्तु के चयन में स्वतन्त्र होते तो वे अपनी अनुभूतियों द्वारा सभी रसों का समावेश न्यूनाधिक मात्रा में करने का प्रयास अवश्य करते। वे कोमल रसों की अभिव्यक्ति तक ही सीमित न रहते। इसी से सम्बद्ध एक कारण यह भी हो सकता है कि बुद्ध की अमूर्त अथवा मूर्त कल्पना में उनकी शान्त तटस्थ धारणा की प्रधानता है। श्रृंगार युक्त चित्रण लौकिक आनन्द के द्योतक हैं, जिनका ज्ञान राजकुमार गौतम को महाभिनिष्क्रमण के पूर्व पूर्णतया प्राप्त था, परन्तु उस सुख को उन्होंने अस्थायी व नश्वर ही माना और पुनर्जन्म के चक्र का मूल कारण ही समझा। प्राणी मात्र के प्रति करुणा, उनके प्रतिपादित धर्म का मुख्य तत्व था और उसी के विभिन्न रूपों को जातक कथाओं में समाविष्ट किया गया है। शायद चित्रण की विषय-वस्तु में जातक कथाओं के प्रसंग ही कलाकारों की परिधि में रहे अथवा संरक्षकों ने उन प्रसंगों के बाहर जाने की कल्पना ही नहीं की। कारण जो भी हो किन्तु उस समय के चित्रण में समाज के एक अंग को अछूता छोड़कर उन्होंने (कलाकारों एवं संरक्षकों) अपनी संकीर्ण प्रवृत्ति का परिचय ही नहीं दिया, वरन् बौद्ध धर्म के सर्व नाम पुनर्जन्म की धारणा की अवहेलना की। परिणामस्वरूप वहाँ की शान्ति, वैभव एवं सम्पन्नता क्षीण होने लगी, जिसका प्रभाव अजन्ता की कला पर भी पड़ा। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि बौद्ध धर्म का प्रभाव भारत में ही नहीं अपितु इसका सम्पूर्ण देश के जन समुदाय पर इसका अमिट प्रभाव पड़ा।

बुद्ध की छवि का प्रचलन - कुषाण राज्य में कनिष्क के सम्राट् बनते ही महायान बौद्ध धर्म का प्रादुर्भाव हुआ। इसके फलस्वरूप भगवान बुद्ध की मूर्ति या चित्र के रूप छवियाँ अंकित की जाने लगीं और बुद्ध के अंकन पर कोई धार्मिक प्रतिबन्ध न रहा। कनिष्क काल में बुद्ध की मूर्तियाँ बनवाई गईं। इन मूर्तियों की शैली यूनानी अधिक थी। इस प्रकार की मूर्तियाँ पेशेवर पुरुपुर, रावलपिंडी, तक्षशिला आदि क्षेत्रों में बनाई गईं। यह क्षेत्र गन्धार राज्य की सीमा के अन्तर्गत था। अतः इस शैली को गान्धार शैली के नाम से पुकारा गया है। इन मूर्तियों का विषय भारतीय बौद्ध था, परन्तु शैली पर यूनानी तथा रोमन छाप है। इन कलाकारों ने बुद्ध के जीवन से सम्बन्धित कथाओं तथा जातक कथाओं आदि पर आधारित मूर्तियाँ बनाईं। इन मूर्तियों में भगवान बुद्ध की मुद्रायें भारतीय हैं।

 

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- दक्षिण भारतीय कांस्य मूर्तिकला के विषय में आप क्या जानते हैं?
  2. प्रश्न- कांस्य कला (Bronze Art) के विषय में आप क्या जानते हैं? बताइये।
  3. प्रश्न- कांस्य मूर्तिकला के विषय में बताइये। इसका उपयोग मूर्तियों एवं अन्य पात्रों में किस प्रकार किया गया है?
  4. प्रश्न- कांस्य की भौगोलिक विभाजन के आधार पर क्या विशेषतायें हैं?
  5. प्रश्न- पूर्व मौर्यकालीन कला अवशेष के विषय में आप क्या जानते हैं?
  6. प्रश्न- भारतीय मूर्तिशिल्प की पूर्व पीठिका बताइये?
  7. प्रश्न- शुंग काल के विषय में बताइये।
  8. प्रश्न- शुंग-सातवाहन काल क्यों प्रसिद्ध है? इसके अन्तर्गत साँची का स्तूप के विषय में आप क्या जानते हैं?
  9. प्रश्न- शुंगकालीन मूर्तिकला का प्रमुख केन्द्र भरहुत के विषय में आप क्या जानते हैं?
  10. प्रश्न- अमरावती स्तूप के विषय में आप क्या जानते हैं? उल्लेख कीजिए।
  11. प्रश्न- इक्ष्वाकु युगीन कला के अन्तर्गत नागार्जुन कोंडा का स्तूप के विषय में बताइए।
  12. प्रश्न- कुषाण काल में कलागत शैली पर प्रकाश डालिये।
  13. प्रश्न- कुषाण मूर्तिकला का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
  14. प्रश्न- कुषाण कालीन सूर्य प्रतिमा पर प्रकाश डालिये।
  15. प्रश्न- गान्धार शैली के विषय में आप क्या जानते हैं?
  16. प्रश्न- मथुरा शैली या स्थापत्य कला किसे कहते हैं?
  17. प्रश्न- गांधार कला के विभिन्न पक्षों की विवेचना कीजिए।
  18. प्रश्न- मथुरा कला शैली पर प्रकाश डालिए।
  19. प्रश्न- गांधार कला एवं मथुरा कला शैली की विभिन्नताओं पर एक विस्तृत लेख लिखिये।
  20. प्रश्न- मथुरा कला शैली की विषय वस्तु पर टिप्पणी लिखिये।
  21. प्रश्न- मथुरा कला शैली की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  22. प्रश्न- मथुरा कला शैली में निर्मित शिव मूर्तियों पर टिप्पणी लिखिए।
  23. प्रश्न- गांधार कला पर टिप्पणी लिखिए।
  24. प्रश्न- गांधार कला शैली के मुख्य लक्षण बताइये।
  25. प्रश्न- गांधार कला शैली के वर्ण विषय पर टिप्पणी लिखिए।
  26. प्रश्न- गुप्त काल का परिचय दीजिए।
  27. प्रश्न- "गुप्तकालीन कला को भारत का स्वर्ण युग कहा गया है।" इस कथन की पुष्टि कीजिए।
  28. प्रश्न- अजन्ता की खोज कब और किस प्रकार हुई? इसकी प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख करिये।
  29. प्रश्न- भारतीय कला में मुद्राओं का क्या महत्व है?
  30. प्रश्न- भारतीय कला में चित्रित बुद्ध का रूप एवं बौद्ध मत के विषय में अपने विचार दीजिए।
  31. प्रश्न- मध्यकालीन, सी. 600 विषय पर प्रकाश डालिए।
  32. प्रश्न- यक्ष और यक्षणी प्रतिमाओं के विषय में आप क्या जानते हैं? बताइये।

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